Monday, February 16, 2009

भारतीय लोकतंत्र में न्याय व्यवस्था

हमारे देश में न्याय पाने की प्रकिरिया इतनी दुरूह ,कठिन ,लम्बी ,और महंगी है कि साधारण व्यक्ति तो क्या मध्यम दर्जे का नागरिक भी न्याय पाने में असमर्थ है और जब ये ही नागरिक असमर्थ हैं तो गरीब आदमी कि तो बिसात ही क्या है ,अब चाहे वो गरीब व्यक्ति न्यायालयों के चक्कर लगाए अथवा सरकारी या गेर सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटता रहे या कारागार में पडा सड़ता रहे उस बेचारे को तो भगवान् के सिवा कोई न्याय दे नही सकता यद्यपि लोकादाल्तें भी चल रहीं हैं परन्तु वहा पर भी तो बेठे न्यायाधिकारी ही हैं ,वो भी किसी ना किसी से प्रभावित हो ही जाते है अब सोचिये गरीब आदमी का प्रभाव तो इतने बड़े -बड़े अधिकारियों पडेगा नही ,बल्कि मेने तो कितने ही बार ऐसा भी देखा है कि वो गरीब अपनी बात कह भी नही पाटा और डांट कर चुप करा दिया जाता है ,हालांकि सविधान में प्रावधान है कि यदि कोई गरीब व्यक्ति सरकार से फ्री में वकील चाहता है तो उसको वकील मिल सकता है पर उसकी प्रकिर्या भी बहुत लम्बी होती है दुसरे ये बात भी सभी लोग जानते है कि ये सरकारी वकील कितने काबिल और अच्छे होते हैं ,इनका तो मिलना या ना मिलना ना होने के बराबर है ,अत; सरकार यदि वास्तव में गरीबों को न्याय दिलवाना चाहती है तो कानूनी प्रकिर्या को छोटी कराये अथवा जजों को चाहिए कि वो स्वयम दोनों पक्षों को अकेले अपने चेम्बर में बुलाकर मिडीएशन करके न्याय दे ,अथवा केश कि पैरवी ख़ुद वो ही लोग करे जो केश लड़ रहे हैं ,वकील भी साथ होने चाहिए ताकि क़ानून कि बातें वो समझा सके ,इन सभी बातों के होने से हम समझते हैं कि प्रत्येक गरीब को न्याय मिल सकेगा और कोर्टों में जो लंबित केश बहुतायत में पड़े हैं उनसे भी सरकार कि निजात मिल जायेगी तब शायद गरीब बोलेगा जय भारत जय लोकतंत्र ,वैसे यदि चहुँ और द्रष्टि डाली जाए तो भारत में हर नागरिक के लिए न्य्याय पाना कठिन ही नही बल्कि दुर्लभ है

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