Tuesday, March 23, 2010

भारत का लोकतंत्र और दिल्ली की महंगाई

दिल्ली के बाशिंदे बेचारे बड़े अभागे हैं जिसको भी अपना समझकर दिल्ली की गद्दी प़र बिठाते हैं वो ही आकर महंगाई की मार से त्रस्तकरते हैं ,दिल्ली वाले शीला जी से इतने मुग्ध हैं की पिछले लगभग १२ साल से वो ही दिल्ली की मुख्यमंत्री रहीहैं और अभी भी कह रही हैं की चौथी बार भी वो ही आएँगी जब कि पिछले १२ साल में महंगाई अपनी चरम सीमा प़र पहुँच चुकी है और उसने सारे ही रिकार्ड तोड़ दिए हैं आज दिल्ली कि म्ये हालत है कि मध्य वर्ग का आदमी भी आज अपने बच्चों को दो वक्त कि दाल भाजी सब्जी जुटाने में लगा प़र नहीं जुटा पा रहा प़र अपनी इज्जत को बचाने के लिए रुखा सुखा खाकर ज़िंदा है ,प़र कपडे जरुर दूकान या दफ्तर में प्रेस करके पहिन जाता है ,जिन दाल और सब्जी या आटे कि कीमतों में अभी कुछ कमी आई थी वो अब दिल्ली सरकार के बजट से फिर बढ़ जायेंगी क्योंकि उन्होंने डीजल के रेट .जिससे माल भाड़े में वरद्धि होगी जिसका असर लगभग सभी चीजों प़र पडेगा ,देशी घी ,दरी फ्रूट ,ये अब आम बातें है ,और चाय काफी ,ताले ,प्रेसर कुकर ,बर्तन फर्नीचर ,प्लास्टिक का सामान ये तो सारी चीजे गरीब आदमी ही प्रयोग करते हैं प़र अब ये चीज भी उनके बच्चे खा,पी ,या देख पायेंगे ,और जब बिजली चली जायेगी तो हैण्ड फेन का इस्तेमाल करेंगे ,कहने का मतलन हर चीज इतनी महँगी कर दो कि गरीब या माध्यम दर्जे का आदमी खरीद ही ना सके और अपने बीबी बच्चों को या तो जहर दे दे अथवा अपने ग्राम में भटकने के लिए छोड़ आये ,हाँ इतना जरूर है कि शीला जी को दिल्ली में या तो नेता नजर आटे हैं अथवा सरकारी आदमी ,लगता है अब दिल्ली में ये ही लोग रहेंगे बाकी को दिल्ली छोडनी पड़ेगी ,हमारी शीला जी से करबद्ध प्रार्थना है कि वो हर गरीब आमिर को अपना समझ कर इस बजट को सही कराएं तभी लोकतंत्र कि रक्षा होगी वरना तो मेक दिन अच्छे से अच्छा घडा भी फूट जाता है और फिर हाथ मलने के सिवा कुछ भी नहीं बचता

1 comment:

Udan Tashtari said...

वाकई, कुछ सशक्त पहल करनी होगी..वरना मंहगाई का हाल तो बहुत बुरा है,

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हिन्दी में विशिष्ट लेखन का आपका योगदान सराहनीय है. आपको साधुवाद!!

लेखन के साथ साथ प्रतिभा प्रोत्साहन हेतु टिप्पणी करना आपका कर्तव्य है एवं भाषा के प्रचार प्रसार हेतु अपने कर्तव्यों का निर्वहन करें. यह एक निवेदन मात्र है.

अनेक शुभकामनाएँ.