Thursday, February 19, 2015

स्तम्भ

कोई व्यक्ति स्तम्भ बना हुआ है ,
वो स्तम्भ की भांति शांत बना है
मूक भी स्तम्भ की भांति ही है
सभी की सुनता है पर बोलता नहीं
और जब बोलता है तो भूल जाता है
की कोई उसे सुन रहा है या नहीं
पर अपने मन की कर्ता रहता है
बड़े से बड़े झूठ को सत्य बनाता है
जो जनता के सर चढ़ कर बोलता है
सभी उसकी बात को पानी देते हैं
और वो पानी सोने का मुलम्मा होता है
उससे वो स्वयंको विभूषित करता है
ताकि जनता में अच्छा संदेश जाए
पर संदेश जनता को पच नहीं पाता है
और वो उगल दिया जाता है उल्टी सा
और अंत अति दुर्गंधय युक्त हो जाता है
चहुँ ओर दुर्गन्धही दुर्गन्ध हो जाती है  ही
जिसको भी सूंघने से  पता चलता है
वो स्तम्भ से दूर हटता चला जाता है
ओर फिर स्तम्भ पहले की भांति ही
स्तम्भ बना शांति से खड़ा रह जाता है 
जब उसे अपनी विद्व्त्ता का भान होता है
तो सर्वस्व ही उसे सिमटता नजर आता हैं
आखिर वो इतना मायुश हो जाता है
स्वयं को बिखरा बिखरा पाता है |

जरा सोचिये ओर लिखिए क्या स्तम्भ का स्तम्भित होना  क्या गुल खिलायेगा ओर फिर से गरिमा से खुद को गरिमायुक्त कर पाता है या नहीं |












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